कृषि क्रांतियों ने मोटे अनाज उत्पादन को सिर्फ नुकसान पहुंचाने का काम किया
13 अगस्त 2023
जब दुनिया के साथ-साथ भारत में भी कोरोना ने दस्तक दी थी। तब कोरोना से बचने के लिए मोटे अनाज के उपयोग की सलाह दी जा रही थी। एक तरह से मोटे अनाज को इम्यूनिटी बूस्टर के रूप में प्रयोग किया जा रहा था। कहे तो इसे सुपर फूड कहा जाने लगा। लेकिन भारत में मोटे अनाज के उत्पादन और उपभोग में वृद्धि को लेकर आखिर क्या रणनीतियां अपनाई गई। आमतौर पर भारत में मौसम के आधार पर तीन प्रकार की खेती की जाती है। खरीफ की फसल जो जून और जुलाई के महीने में उगाई जाती है। आमतौर पर इसे वर्षा ऋतु की फसलें भी कहते हैं। इन फसलों में धान, मक्का, बाजरा, मूंगफली, उड़द, मूंग आदि जैसे फसलें आती हैं। रबी फसलें जो की मुख्य रूप से सर्दियों के मौसम में अक्टूबर और नवंबर में उगाई जाती है। इसके अंतर्गत सरसों, चना, मटर, गेहूं, आलू, गन्ना, चुकंदर आदि आते हैं। जायद फसलें जो कि खरीफ और रबी फसलों के बीच उगाई जाती है। इन फसलों के अंतर्गत ककड़ी, खीरा, तरबूज, खरबूज, टमाटर आदि फसलों की खेती की जाती है। आमतौर पर देखा जाए तो भारत आज गेहूं और चावल के अधिक से अधिक उत्पादन तक ही सीमित रह गया है। इससे मोटे अनाजों को प्रोत्साहन किस तरह से मिल सकता है? आमतौर पर मोटे अनाज को दो भागों में बांटा जाता है। पहला मोटा अनाज जिसमें ज्वार और बाजरा आते हैं और दूसरा, लघु अनाज जिनमें बहुत छोटे दाने वाले मोटे अनाज जैसे रागी, कंगनी, कोदो, चीना, सांवा और कुटकी आदि आते हैं। तो भारत में मुख्य तौर पर मोटे अनाज के मामले में ज्वार, बाजरा और रागी का स्थान होता है मोटे अनाजों के खासियत की बात करें तो खेती करने के मामले में इनके अंदर सूखा वाहन करने की क्षमता होती है, कीटो से लड़ने की रोग प्रतिरोधक क्षमता होती हैं और उर्वरक एवं खादों की न्यूनतम मांग होती है। फसलों के पकने की अवधि भी कम होती है। कुछ मोटे अनाजों के पकने की अवधि 80 से 85 दिन और कुछ फसलों के 90 से 95 होती है। यदि गेहूं के वृद्धि काल की बात करें तो 70 से 100 दिन और धान की 120 से 150 दिन तक होती है। अब आप तुलना करके स्वयं जान सकते हैं कि मोटे अनाजों की वृद्धि काल के मामले में कमी होने के बावजूद भी इन पर इनके उत्पादन और उपभोग के मामले में हम पीछे है। ज्वार, रागी, मक्का, सावा के प्रोटीन, वसा, खनिज तत्व, फाइबर, कार्बोहाइड्रेट, कैलोरी, कैल्शियम, फास्फोरस, आयरन, फोलिक एसिड, जिंक तथा एमिनो की तुलना गेहूं और चावल से की जाए तो इन मोटे अनाजों को किसी भी प्रकार से इनसे कम नहीं आंका जा सकता है। भारत का राजपत्र 13 अप्रैल 2018 कहता है कि मोटे अनाज में पोषण संबंधी सुरक्षा में योगदान देने की बहुत अधिक क्षमता है।
बात खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 की करें जिसके अंतर्गत ग्रामीण भारत के तीन चौथाई प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह 5 किलोग्राम गेहूं और चावल खाद्यान्न प्राप्त करने के हकदार हैं। इन्हीं जैसी योजनाओं के कारण भारत में मोटे अनाजों की मांग में कमी आने के कारण मोटे अनाज के उत्पादन पर भी विपरीत असर पड़ने लगा। भारत में मोटे अनाज के प्रोत्साहन करने की दिशा में वर्ष 2018 को मोटा अनाज वर्ष के रूप में मनाया गया था। जिसकी शुरुवात उस समय के केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने की थी। हर वर्ष 16 नवंबर को मोटा अनाज दिवस के रूप में मनाया जाता है। वर्ष 2018 को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोटा अनाज वर्ष मनाए जाने के लिए पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने उस समय संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंटोलियो गुटेरेस को इस संदर्भ में में पत्र लिखा था। अपने पत्र में उन्होंने लिखा कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोटे अनाजों को प्रोत्साहित किए जाने की अत्यंत आवश्यकता है क्योंकि उपभोक्ता, नीति निर्माताओं, उद्योग तथा अनुसंधान एवं विकास क्षेत्र में इसको लेकर के जागरूकता की व्यापक कमी है। इसके बाद 4 मार्च 2021 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सर्वसम्मति से भारत द्वारा प्रायोजित मोटे अनाज के प्रस्ताव पर मुहर लगाते हुए वर्ष 2023 को “मोटे अनाज का अंतरराष्ट्रीय वर्ष” घोषित किया। इस प्रस्ताव को भारत ने नेपाल, बांग्लादेश, केन्या, रूस, नाइजीरिया और सेनेगल देशों के साथ मिलकर तैयार किया था। जिसे कुल 70 से अधिक देशों ने अपना समर्थन दिया था। संयुक्त राष्ट्र ने “मोटे अनाज का अंतरराष्ट्रीय वर्ष” 2030 को क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी खाद्य और कृषि संगठन को दी है।
यदि भारत में मोटे अनाज के उत्पादन की स्थिति को देखें और उसकी तुलना गेहूं और चावल के उत्पादन से करें तो आपको इसमें व्यापक अंतर मिल सकता है। इस अंतर को समझने के लिए हम Index Mundi वेबसाइट का सहारा ले रहे हैं। संक्षिप्त में मोटे अनाज के उत्पादन की बात करते है। 1960 में मोटे अनाज का उत्पादन 7087 मिलियन टन था जो 1970 में बढ़कर 12172 मिलियन टन तक पहुंच गया था। 2021 में इसका उत्पादन 11500 मिलियन टन हुआ है। मोटा अनाज 2003 में अपने उच्चतम स्तर 14639 मिलियन टन पर था। पिछले पांच दशकों से इसका उत्पादन लगभग स्थिर सा ही रहा है। 1952-54 के दौरान, बाजरा राष्ट्रीय खाद्यान्न उत्पादन का 20 प्रतिशत था, जो अब घटकर केवल 6 प्रतिशत ही रह गया है। अंतरराष्ट्रीय फसल अनुसंधान संस्थान द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, 1962 और 2010 के बीच, भारत में बाजरा की प्रति व्यक्ति खपत 32.9 किलोग्राम से गिरकर 4.2 किलोग्राम प्रति वर्ष ही रह गई है।
वर्ष 2018 में भारत में मोटा अनाज वर्ष मनाया गया तो हम 2018 से मोटे अनाज के उत्पादन की स्थिति को देखते हैं। 10236 मिलियन टन मोटे अनाज का उत्पादन 2018 में हुआ था जो कि 2017 के मुकाबले 12% कम था यानि 2017 में 11640 मिलियन टन मोटे अनाज का उत्पादन हुआ था। 2019 में 12489 मिलियन टन मोटे अनाज का उत्पादन हुआ था यानि 2018 के मुकाबले 2019 में मोटे अनाज में 22% की वृद्धि दर्ज की गई, हालांकि 2020 में इसमें महज 5% की वृद्धि दर्ज हुई। 2021 में मोटा अनाज उत्पादन के मामले 2020 के मुकाबले 13% की कमी दर्ज की गई। वर्ष 2022 में अनुकूल स्थिति में आते हुए मोटे अनाज उत्पादन के मामले में 15% की वृद्धि दर्ज हुई। यदि 1960 से लेकर 2020 तक के मोटे अनाज चित्र1 , गेहूं चित्र2 और चावल चित्र3 के उत्पादन की तुलना करें तो आप इस चित्र से समझ सकते है मोटे अनाज से संबंधित चित्र में वृद्धि और कमी को देखकर लगता हैं यह एक ही स्तर के आसपास तक बना हुआ है।
अब इन उत्पादों की तुलना को देख करके आप समझ सकते हैं कि भारत में मोटे अनाज का उत्पादन किस तरह से प्रभावित हुआ है। इसके प्रभावित होने के पीछे क्या कारण है? तो आइए भारत में कृषि क्रांति के बारे में बात करते हैं कि जो भी कृषि क्रांतियां भारत में लागू हुई, क्या वह मोटे अनाज को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य आई थी? भारत में कृषि क्रांति की पहली क्रांति हरित कृषि क्रांति को कहा जाता है। इसकी शुरुआत 1960 के दशक में हुई थी। जब भारत में अकाल की स्थिति की समस्याओं से निपटने के लिए देश में कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए हरित कृषि क्रांति नीति लागू की गई। जो कि गेहूं और धान तक सीमित थी। इसी का परिणाम था कि धान और गेहूं की पैदावार में बेहतर वृद्धि हुई। हरित क्रांति के जनक नॉर्मन बोरलॉग है। इसके बाद आते हैं श्वेत क्रांति पर। इसका मुख्य उद्देश्य दूध की कमियों को दूर करना था, जिसकी शुरुआत 1970 के दशक में हुई थी। इसके इसके अंतर्गत दुग्ध उत्पादन, प्रसंस्करण, खुदरा बिक्री और पशुधन विकास पर ध्यान दिया जाता है। इसके जनक है वर्गीज कुरियन। श्वेत क्रांति को “ऑपरेशन फ्लड” भी कहा जाता है। इसके बाद आते हैं पीली क्रांति पर। पीली क्रांति की शुरुआत 1980 के दशक में हुई थी। इसके अंतर्गत सरसों, सूरजमुखी और मूंगफली आदि जैसी तिलहन फसलों के उत्पादन वृद्धि का लक्ष्य रखा गया। लेकिन यह मुख्य रूप से सरसों तक ही सीमित रही। इसके अलावा विभिन्न कृषि क्रांति या कृषि क्षेत्रों से संबंधित क्रांति की बात करें तो नीली क्रांति जो की सातवीं पंचवर्षीय योजना में शुरू हुई थी। जिसका मुख्य उद्देश्य मछली उत्पादन को बढ़ावा देना था। भूरी क्रांति जो की मिट्टी की गुणवत्ता को बढ़ाने के उद्देश्य से, लाल क्रांति टमाटर और मांस उत्पादन को बढ़ाने के उद्देश्य, गुलाबी क्रांति झींगा मछली उत्पादन के बढ़ाने के उद्देश्य, गोल क्रांति आलू उत्पादन बढ़ाने के उद्देश्य से, सुनहरी क्रांति फलों के बगीचे और बीजों के विकास को बढ़ाने के उद्देश्य शुरू की गई थी।
अब आप गौर कर सकते हैं जो भी कृषि क्रांतियां आई क्या उनमें से मुख्य रूप से मोटे अनाजों के उत्पादन में वृद्धि लाने के लिए कोई क्रांति लाई गई। इसे देखकर के लगता है कि जो भी कृषि क्रांतियां आई पोषक तत्वों से भरपूर मोटे अनाज के उत्पादन को रौदतें चली गई। अब जाकर मोटा अनाज कृषि क्रांति की शुरुआत मानी जा रही है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2023 को “मोटे अनाज का अंतरराष्ट्रीय वर्ष” घोषित किया गया है। उसका लक्ष्य मोटे अनाज के उत्पादन और उपभोग के मामले में वृद्धि करना है। मोटे अनाज के उपभोग और उत्पादन के मामले में भारत और अन्य देश कहां तक जा सकते है? क्या मोटा अनाज यानी जिसे सुपर फूड कहा जाता है इसके माध्यम से कुपोषण को दूर किया जा सकेगा? वर्ष 2030 तक संयुक्त राष्ट्र ने कुपोषण मुक्त का लक्ष्य रखा है, वहीं भारत 2022 तक कुपोषण मुक्त का लक्ष्य रखा है। हालांकि वर्तमान स्थितियों को देखें तो भारत 2022 तक कुपोषण मुक्त नहीं हो सकता है।
मोटे अनाज की प्रगति को जानने के लिए हमे 2023 के अन्त तक आने वाली “मोटे अनाज का अंतरराष्ट्रीय वर्ष” समीक्षा रिपोर्ट का इंतजार करना होगा।